इधर हिंदी साहित्य की दुनिया में कथेतर के प्रति रचनाकारों के बढ़े हुए रुझान के कारण बहुत सारी ऐसी विधाओं में भी खूब काम हो रहा है जिनमें हाल के बरसों में कम सक्रियता नज़र आती थी. ऐसी ही एक विधा जीवनी है. यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि किसी समकालीन या लगभग समकालीन ऐसे व्यक्तित्व पर लिखने की तुलना में जिसको जानने वाले अभी भी मौज़ूद हों, ऐसे व्यक्तित्व पर लिखना अपेक्षाकृत कठिन है जिसे दिवांगत हुए भी अर्सा बीत गया हो. यों भी हमारे यहां आत्म प्रक्षेपण के मामले में संकोच बरता जाता रहा है अत: इस बात की सम्भावनाएं भी बहुत अधिक नहीं होती हैं कि सम्बद्ध व्यक्तित्व ने ही अपने बारे में बहुत कुछ कह रखा हो. ऐसे में अगर कोई समकालीन रचनाकार ऐसे व्यकित्व की जीवनी लिखने का प्रयास करे जिसका जन्म 27 दिसम्बर 1797 को हुआ हो और जो 15 फरवरी 1869 को इस दुनिया से कूच कर गया हो, तो उसकी कठिनाइयों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. मैं बात कर रहा हूं बहुत बड़े शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की. उनकी जीवनी लिखने का बहुत मुश्क़िल काम किया है पत्रकारिता, लेखन और कला में आकण्ठ डूबे जयपुर के विनोद भारद्वाज ने. 'जयपुर के विनोद भारद्वाज' कहना इसलिए ज़रूरी है कि हिंदी लेखन की दुनिया में एकाधिक विनोद भारद्वाज सक्रिय हैं. इस जीवनी, जिसे रचनाकार ने ज़िंदगीनामा कहा है, और जिसका शीर्षक है गली क़ासिम जान, की भूमिका में ठीक ही कहा गया है: हम जिस पीढ़ी के लोग हैं, ज़ाहिर है ग़ालिब का वक़्त इससे बहुत पीछे का था. पीढ़ियों के अंतर के बाद भी अगर इस शाइर से कोई रिश्ता बनता है तो मानना पड़ेगा कि उनकी शाइरी की कशिश ही उनकी जाती ज़िंदगी तक पहुंचने की वजह बनी. इस महान शाइर की ज़िंदगी में झांकने का सिलसिला कोई दो रोज़ में नहीं बन गया. इसी भूमिका में यह स्वीकारोक्ति भी है: इस ज़िंदगीनामे में हक़ीक़त ज़्यादा है और फ़साना कम. बस उतना ही जिससे कहानी को आगे बढ़ाने में मदद मिल सके. एक लेखक के तौर पर मेरे लिए यह बहुत अहम सवाल थे कि ग़ालिब के साथ जो कुछ हो रहा था या वो जो भी कुछ कर रहे थे उसका उन पर क्या असर हो रहा था और उन हालात से सामना करने की वो क्या कोशिश कर रहे थे? ज़िंदगीनामे में बहुत से ऐसे मुकाम आए, जहां साफ़-साफ़ कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहं धुंध छांटने के लिए कई किरदारों का सहारा लेने की कोशिश की. यानि मुकम्मल जानकारी न मिलने पर भी उसके सबसे नज़दीक पहुंचने की कोशिश की. विनोद भारद्वाज ने इस जीवनी में मुख्यत: ग़ालिब के ख़तों को आधार बनाकर उनके जीवन का ख़ाका खींचने का प्रयास किया है. बेशक उन्होंने अन्य स्रोतों का और थोड़ी कल्पना का भी बड़ी सूझबूझ के साथ प्रयोग किया है. इस तरह हमारे सामने ग़ालिब की जो छवि उभरती है, उसके लिए किताब के अंत में सही ही कहा गया है: एक शाइर का ये ज़िंदगीनामा उसकी जाती हालात की तफ़सील तो है ही, यह उस पूरे दौर का दस्तावेज़ भी है जब हिंदुस्तान की तारीख़ एक अहम तूफ़ान से गुज़र रही थी. यह वह दौर था जब मुग़ल सल्तनत अपनी आख़िरी सांसें गिन रही थी और लाल क़िले की चमक वैसी नहीं रह गई थी जो शाहजहां के दौर में थी. ऐसे वक़्त का गवाह रहा यह शाइर अंग्रेज़ों के ज़रिए पश्चिम की सोच और अंग्रेज़ों के सूरज को अपने मुल्क में उभरते हुए देख रहा था. ऐसे वक़्त में ग़ालिब ही था जो हिंदुस्तान की बदलते हुई क़िस्मत के साथ-साथ अपनी ज़ाती ज़िंदगी के दर्द को आम इंसान की तक़लीफ़ों को शाइरी में ढालता रहा.
ग़ालिब की ज़िंदगी जैसे दर्द का एक भरापूरा दस्तावेज़ है. मात्र पांच साल की उम्र में उनके पिता का साया सर पर से उठ गया, फिर चाचा ने अपनी शरण में लिया तो यह आश्वस्ति भी दो-तीन बरस ही रही, जवानी का दौर तरह-तरह की असफलताओं से घिरा रहा, आमदनी बहुत ही कम. पिता और चाचा के न रहने पर जो जागीर उन्हें मिलनी थी उसमें भी बहुत सारे बंटवारे हो गए. जो पेंशन निर्धारित हुई उसके भी इतने टुकड़े हो गए कि ग़ालिब को दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर होना पड़ा. पेंशन की बहाली के लिए उन्होंने न जाने किन-किन को अर्ज़ियां दीं और उन्हें ऐसे ऐसे लोगों की शान में कसीदे पढ़ने पड़े जो इसके क़ाबिल न थे. वे जहां भी जाते, नाकामयाबी और तक़लीफ जैसे उनके पीछे पीछे चली आती. कलकत्ता गए तो आलम यह रहा कि जिस कलकत्ता ने मुझे तमाम तरह की इज़्ज़त बख़्शी थी, उसी शहर ने मेरी फज़ीहत करने में कोई कमी न छोड़ी. अपने लोगों की तुलना में अंग्रेज़ों से उन्हें बेहतर सुलूक हासिल होता है. तभी एक जगह वे कहते हैं, अंग्रेज़ों के हाथ में पेंशन आ जाने का सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि अठारह सौ इकत्तीस से नवाब ने जो पेंशन रोक रखी थी वो एक मुश्त मिल गई और मैं रोज़-रोज़ नवाब के सामने हाथ पसारने की तवालत से बच गया. इसी क्रम में वे एक ख़ास बात और कह जाते हैं, अगर इस मुल्क में अपना मुस्तकबिल बनाना है, तो अंग्रेज़ों की ज़बान सीखो मियां, यही आने वाले दौर में सरकारी ज़ुबान होगी. इस जीवनी में एक बड़ी बात यह उभर कर आती है कि भले ही ग़ालिब करीब-करीब पूरी ज़िंदगी आर्थिक दुरवस्था के शिकार रहे और अपनी पेंशन के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर हुए, उनका स्वाभिमान जस का तस बना रहा. यह बात एक प्रसंग से बहुत अच्छी तरह उजागर होती है. सन 1842 में अंग्रेज़ी हुकूमत के एक बड़े अफ़सर जनरल टामसन दिल्ली कॉलेज के मुआयने पर आते हैं और यह मंशा ज़ाहिर करते हैं कि वहां फ़ारसी की तालीम के लिए भी कोई उस्ताद होना चाहिए. तीन नामों पर विचार किया जाता है – मिर्ज़ा ग़ालिब, मोमिन खां च्मोमिनज् और शेख़ इमामबख़्श च्सेहबाईज्. टामसन साहब, जिनसे ग़ालिब की मैत्री भी थी, इण्टरव्यू के लिए सबसे पहले ग़ालिब को बुलाते हैं. मिर्ज़ा साहब बाकायदा पालकी में सवार होकर टामसन के बंगले पर पहुंचते हैं और चारों तरफ़ निगाह डालकर देखते हैं कि क्या कोई उनका स्वागत करने के लिए मौज़ूद है? तभी बंगले के भीतर से कोई आकर उनसे कहता है कि हज़रत तशरीफ़ लाइए. इस पर ग़ालिब कहते हैं, भई, कोई आगे से लेने आए तो उतरूं. यह संवाद चल ही रहा था कि टामसन भी बाहर आ जाते हैं और पूरी बात समझकर ग़ालिब से कहते हैं, मिर्ज़ा साहब, इस वक़्त आपकी आमद मेरे दोस्त की हैसियत से नहीं हुई. आप यहां नौकरी के लिए आए हैं, इसलिए आपको वैसे अमल की उम्मीद नहीं करनी चाहिए जो मेहमानों या दोस्तों से किया जाता है. इस बात के जवाब में ग़ालिब जो कहते हैं वह हमारी नज़रों में उनका कद बढ़ा देने के लिए पर्याप्त से भी अधिक है. ग़ालिब कहते हैं, नौकरी इसलिए करना चाहता था ताकि मेरी इज़्ज़त में इज़ाफ़ा हो और रुतबा बढ़े, अगर नौकरी के मायने ये हैं कि मौज़ूदा रुतबे में भी कमी आ जाए तो ऐसी नौकरी को मेरा दूर से सलाम मानिए.
यह किताब भले ही घोषित रूप से ग़ालिब की जीवनी है, इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यह ग़ालिब के साथ-साथ उनके समय की भी जीवनी है. लगभग सात दशकों में फैला ग़ालिब का समय भारतीय इतिहास के करवट लेने का समय है और लेखक की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि उसने बहुत कुशलता और प्रमाणिकता से इस समय की हर धड़कन को इस जीवनी में संजोया है. इस जीवनी की एक और परत यह है कि यहां तत्कालीन शाइरों की पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, उनकी राजनीति, उनकी नाराज़गियां, उनकी राजनीति भी बखूबी चित्रित हुई है. जगह जगह आए किस्से इस जीवनी को न केवल रोचक और पठनीय बनाते हैं, उसे मांसलता भी प्रदान करते हैं, जो इस तरह की किसी भी किताब को सजीवता प्रदान करने के लिए बहुत आवश्यक है.
इस ज़िंदगीनामा को पढ़कर हम यह महसूस करते हैं कि जिस ग़ालिब को हम उसकी शायरी के माध्यम से जानते हैं उस शायरी का उत्स क्या था और यह भी कि वही शायर बड़ा होता है जो तूफ़ानों के बीच अपने आप को बचाये रखने की जद्दोजहद करता है. इस ज़िंदगीनामा में ग़ालिब के अलावा और भी बहुत सारे शायर हमारे सामने आते हैं और हम बड़े सहज स्वाभाविक रूप से उनकी तुलना में ग़ालिब को देख-समझ पाते हैं. इस किताब की एक बहुत बड़ी ख़ासियत इसकी प्रवाहमयी भाषा है. विनोद भरद्वाज ने हालांकि ग़ालिब के पत्रों का यहां भरपूर प्रयोग किया है, इस बात के लिए उनकी अलग से सराहना बहुत ज़रूरी है कि इन पत्रों में उनका लिख ऐस तरह घुल-मिल गया है कि कहीं कोई फांक ढूंढे से भी नहीं मिलती है. इतना सब कह चुकने के बाद भी क्या यह कहने की ज़रूरत रह गई है कि गली क़ासिम जान हमारे समय की एक बेहद महत्वपूर्ण कृति है.
- समीक्षक : डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
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